BHIC 133- भारत का इतिहास ( Bharat ka itihaas ) C- 1206- 1707 || || History Most important question answer

Bharat ka itihaas- bhic- 133- history important question answer.

 ( परिचय )

प्रिय विद्यार्थियों इस वाले Article में हम आपको बताने वाले हैं BHIC 133- भारत का इतिहास-  Bharat ka itihaas ) C- 1206- 1707  इसमें आपको सभी important question- answer देखने को मिलेंगे इन question- answer को हमने बहुत सारे Previous year के  Question- paper का Solution करके आपके सामने रखा है  जो कि बार-बार Repeat होते हैं, आपके आने वाले Exam में इन प्रश्न की आने की संभावना हो सकती है  इसलिए आपके Exam की तैयारी के लिए यह प्रश्न उत्तर अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे। आपको आने वाले समय में इन प्रश्न उत्तर से संबंधित Video भी देखने को मिलेगी हमारे youtube चैनल Eklavya ignou पर, आप चाहे तो उसे भी देख सकते हैं बेहतर तैयारी के लिए

Bharat ka itihaas- bhic- 133- history important question answer

1.मुगल राजपूत संबंधों का संक्षिप्त में विवरण प्रस्तुत कीजिए?

Give a brief account of the Mughal – Rajput relations?

मुगल साम्राज्य की स्थापना बाबर ने की थी  इसके बाद हुमायूं , बाबर का  उत्तराधिकारी के रूप में सामने आया

परंतु मुगल साम्राज्य को ऊंचाइयों तक ले जाने का श्रेय अकबर को जाता है अकबर द्वारा अपनाई गई नीतियों के कारण मुगल साम्राज्य इतिहास में अपनी एक खास जगह बनाए हुए हैं। अबुल फजल द्वारा लिखी गई अकबरनामा में अकबर के काल की सारी जानकारियां विस्तृत रूप से प्राप्त होती हैं

अकबर ने राजपूतों के साथ भी मित्रता की  

यह मैत्रीपूर्ण संबंध बहुत लंबे समय तक चले।

मुगल राजपूत संबंध अलग-अलग मुगल शासकों के समय में विभिन्न प्रकार से थे

अकबर -

अकबर के शासन काल में मुगल राजपूत संबंध अपने चरम पर थे।

राजपूतों के साथ संबंध 3 चरणों में विभाजित किए गए हैं।


1569-70 प्रथम चरण

आमेर के राजा भारमल के नेतृत्व में राजपूत सेना ने अकबर के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट की और परिणामस्वरूप भारमल की पुत्री का विवाह अकबर से कराया गया

अकबर ने 1560 से 1564 के बीच जजिया कर समाप्त कर दिया।

रणथंबोर के गवर्नर राव दलपत राय को शाही सेना में स्वीकार कर उन्हें जागीर देकर अपना जागीरदार बनाया।

भगवान सिंह जो कछवाहा राजकुमार था उसकी बहन से शादी की।


1570 द्वितीय चरण-

बीकानेर के राय कल्याणमल ने अकबर के सामने अपने पुत्र सहित स्वयं आकर श्रद्धा प्रकट की और जैसलमेर के रावल और कल्याणमल की बेटियों की शादी अकबर के साथ कराई गई। अकबर ने अपनी सेना में कई राजपूतों को बड़े पदों पर नियुक्त किया                 

राजपूत ने गुजरात में बगावत की उस समय अकबर ने मानसिंह और भगवत सिंह जैसे कछवाहा राजपूतों पर अपना भरोसा जताकर भेजा।


तृतीय चरण 1580 -

राजपूतों के बढ़ते प्रभाव से अभिजात वर्ग में अशांति पैदा हो गई। अकबर ने राजपूतों के साथ और विवाह संबंध स्थापित किए 1580 में भगवान दास की पुत्री मीराबाई का विवाह सलीम के साथ करवाया गया

जहांगीर और शाहजहां-

अकबर के द्वारा स्थापित राजपूतों के साथ संबंध 16वी शताब्दी में भी जारी रहे।

मेवाड़ के साथ युद्ध की समाप्ति जागीर की सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में साबित हुई

उसने राणा की व्यक्तिगत उपस्थिति पर विशेष बल नहीं दिया और राणा के पुत्र की उपस्थिति को स्वीकार कर लिया। राणा के पुत्र को भी मनसब और जागीर देकर जागीरदार बनाया गया राणा के साथ मुगलों के कोई वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं हुए परन्तु उनके साथ उन्होंने राजनीतिक संबंध स्थापित किए।

 

जहांगीर-

जहांगीर के शासनकाल में चार महत्वपूर्ण राज्य बीकानेर, मेवाड़ ,आमेर और मारवाड़ शासकों को 5000 जात या उससे ऊंचा मनसबदार बनाया गया। खुसरो की बगावत के बाद राजपूतों को दिए जाने वाले मनसबदार के पदों में कमी आई। राजपूतों को किलेदार या फौजदार बनाया जाने लगा।

 

शाहजहां-

शाहजहां के समय राजपूतों को मनसब और बड़े पद दिए गए इससे साबित होता है कि राजपूतों पर शाहजहां ने अपना विश्वास बनाए रखा।

 

औरंगजेब-

1680 के बाद राजपूतों के प्रति औरंगजेब की नीति अन्य मुगल राजाओं से भिन्न थी। मारवाड़ और मेवाड़ के राजा औरंगजेब से अपने चुने गए क्षेत्रों को वापस लेना चाहते थे। औरंगजेब ने राजपूतों को महत्वपूर्ण कार्य और पदों से दूर रखा

औरंगजेब का पुत्र आजम औरंगजेब की राजपूत नीति को गलत मानता था

उसने राणा के साथ मिलकर षड्यंत्र कर शासक बनने का भी प्रयास किया। कोटा, बूंदी, आमिर और बीकानेर शासकों से अभी भी औरंगजेब को समर्थन प्राप्त था

परंतु अकबर ,जहांगीर और शाहजहां के शासनकाल की तरह मुगल और राजपूतों का संबंध शिखर को ना छू सके इस बड़ी दीवार का कारण औरंगजेब का कट्टरपंथी होना भी रहा। धीरे-धीरे औरंगजेब की राजपूत नीति के कारण औरंगजेब के राजपूतों से संबंध बिगड़ने लगे।

निष्कर्ष -

इस प्रकार देखा जा सकता है कि मुगल और राजपूत के संबंध अलग-अलग समय में अलग-अलग प्रकार के रहे। अकबर ने राजपूतों के साथ अच्छे संबंध स्थापित किए वही आगे चलकर औरंगजेब ने संबंधों को बनाए रखने के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया राजपूतों के साथ संबंध दो रूपों में बनाए जाते थे वैवाहिक संबंध और राजनीतिक संबंध अकबर ने राजपूतों के साथ अधिक से अधिक वैवाहिक संबंध स्थापित किए।


2 ) इक्ता की व्याख्या कीजिए इसकी प्रमुख विशेषताओं की चर्चा कीजिए?

Define Iqtas. Disccus its characteristic features?

 

इक्ता व्यवस्था का प्रारंभ मध्य एशिया में देखा जाता है अफगानिस्तान के गौर वंश ने इस व्यवस्था को आगे बढ़ाया इसी प्रकार धीरे-धीरे यह व्यवस्था दिल्ली सल्तनत में भी प्रवेश कर गई। इक्ता शब्द अरबी भाषा से लिया गया है। इक्ता प्रणाली का उल्लेख सियासत नामा पुस्तक जो निजाम मुल्क तुसी के द्वारा लिखी गई है।

मध्य एशिया में युद्ध के बाद जीती गई भूमि योद्धा को प्रदान की जाती थी

उन्हें बस उस भूमि पर इस्लाम का उदय और खलीफा की आज्ञा का पालन करना होता था इस अवधारणा से ही इक्ता व्यवस्था का प्रारंभ बिंदु देखा जाता है। भारतीय उपमहाद्वीप में इक्ता की शुरुआत मोहम्मद गौरी द्वारा की गई परंतु इसे एक व्यवस्थित रूप देकर लागू करने का श्रेय इल्तुतमिश को जाता है।

 

इक्ता के प्रमाण प्रकार-

इक्ता व्यवस्था के दो प्रकार होते थे

एक बड़ी - जिसे वली,मुक्ति के नाम से जाना जाता था

एक छोटी को इक्तादार के नाम से जाना जाता था।

 

इक्तादारो का कार्य -

इक्तादार भूमि से कर (tax) वसूल करके ,  राजा के पास पहुंचाते थे तथा बदले में आवश्यकता पड़ने पर सैनिक सहायता,कानून व्यवस्था स्थापित करना आदि कार्य किया करते थे

 

इक्ता व्यवस्था क्या है -

इक्ता व्यवस्था में वेतन के स्थान पर भूमि देने का प्रावधान था। जिन व्यक्तियों को भूमि दी गई वे आगे चलकर इक्तादार ( मुक्ति या वली ) के नाम से जाने जाते थे ।

यह व्यक्ति उस भूमि से कर ( Tax )  वसूल कर अपना खर्च निकाल लेते थे और  बचा हुआ कर ( Tax )  केंद्र के पास फवाजिल के रूप में भेजा जाता था।

इकताधारको को 3 या 4 साल के अंतराल में एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित किया जाता था। यह अनुवांशिक रूप से प्रदान नहीं की जाती थी।

 

इक्ता व्यवस्था का संचालन -

अलग-अलग शासकों के समय में इक्ता व्यवस्था में बहुत से बदलाव हुए।

बलबन ने ख्वाजा नाम से एक अधिकारी को नियुक्त किया जो पूरे इक्ता व्यवस्था पर अपनी नजर बनाए रखता था। अलाउद्दीन खिलजी ने  इक्तादारो के सभी अधिकारों पर नियंत्रण लगा कर खालसा भूमि में बदल दिया

अलाउद्दीन खिलजी के काल में कोई गड़बड़ी होने पर कठोर दंड दिया जाता था इस समय इक्तेदारो कि बार-बार अदला बदली भी की जाने लगी। ।

गयासुद्दीन तुगलक ने इनके प्रति नरम रुख अपनाया और  कुछ रियायत देने का फैसला किया सरदारों को नगद वेतन में वृद्धि की गई तथा राजस्व की नई नीति तैयार की गई जिसे जमा के नाम से जाना जाता था।

मोहम्मद बिन तुगलक इक्तेदारो के प्रति निरंकुशता का रुख अपनाता है। मोहम्मद तुगलक के काल में एक ही क्षेत्र में एक वर्ली और एक अमीर की नियुक्ति की गई

वर्ली का कार्य राजस्व संग्रह कर उसमें से अपने वेतन को रखकर शेष भाग राजकोष में भेजना होता था वही अमीर का राजस्व वसूली से कोई संबंध नहीं था। तुगलक के शासन काल में इकताधारियों को राजकोष से नगद भुगतान किया जाता था

जिससे उनमें असंतोष फैल गया।

फिरोजशाह तुगलक इक्तादारो को वंशानुगत बना देता है।

लोधी काल में इक्ता व्यवस्था विखंडित होने लगी थी

 लोधी काल तक आते-आते व्यवस्था पूरी रूप से खत्म हो चली थी।।

अलाउद्दीन खिलजी द्वारा इक्ता व्यवस्था को बंद किया गया। 

 

इक्ता व्यवस्था की कमियां 

यह वंशानुगत ना होकर योग्यता पर आधारित है।

भूमि पर स्वामित्व राजा का होता है।

इक्तेदार भूमि पर नीतियों के निर्धारण के लिए स्वतंत्र नहीं थे।

कई बार इक्तादार अधिक मजबूत होकर उभरे और उन्होंने अपने आप को स्वतंत्र घोषित किया।

 

इक्ता व्यवस्था के सकारात्मक प्रभाव -

एक बड़े राज्य को छोटे भू भाग में बांटा गया है जिससे प्रशासन चलाना आसान होता है।

इस व्यवस्था से लोगों में शांति और स्थायित्व आता है।

शासक का राजकोष समृद्ध होता है।

राजस्व प्रणाली की एक नीति निर्धारित होती है।

शासक की बिना खर्च किए आय का एक साधन बन जाता है जिससे उसे सेना का भी खर्च नहीं निकालना पड़ता और जरूरत पड़ने पर सेना की आवश्यकता पूर्ति भी होती रही।

शहरीकरण और व्यापार वाणिज्य को बढ़ावा मिला।

 

निष्कर्ष –

इस प्रकार देखा जा सकता है कि इक्ता व्यवस्था की शुरुआत इल्तुतमिश द्वारा की गई

यह व्यवस्था अलग-अलग समय में अपने रूप में बदलाव करती रही परंतु इसका मुख्य स्वरूप नहीं बदला और दिल्ली सल्तनत के बाद मुगल काल में भी इसके साक्ष्य देखने को मिलते हैं।



3)  मुगल साम्राज्य के पतन पर एक टिप्पणी लिखिए?

Write a note on the decline of the Mughal empire?

मुगल साम्राज्य तीन शताब्दियों तक भारत के बड़े भूभाग पर शासन करता रहा

परंतु समय के साथ इसका वर्चस्व खत्म हो गया औरंगजेब के बाद मुगल साम्राज्य का सूर्य अस्त की ओर जाने लगा। इतिहासकारों द्वारा मुगल साम्राज्य के पतन होने के दो कारण मुख्य रूप से पाए हैं।

 

पहला मुगल केंद्रित दृष्टिकोण-

इतिहासकार साम्राज्य के पतन का कारण स्वयं साम्राज्य की कार्य पद्धति और संरचना को पाते हैं।

 

दूसरा क्षेत्र केंद्रित दृष्टिकोण-

साम्राज्य के पतन का कारण क्षेत्रीय समस्याओं और राज्य के विभिन्न भागों में फैली अव्यवस्था को पाया जाता है।

 

साम्राज्य केंद्रित दृष्टिकोण-

मुगल साम्राज्य के पतन का कारण साम्राज्य में होने वाली अनेक गतिविधियों को माना जाता है अकबर सभी धर्मों को साथ लेकर अपने साम्राज्य का विस्तार करता चला गया परंतु वही औरंगजेब की कट्टरपंथी नीतियों के कारण साम्राज्य पतन की ओर बढ़ा

 औरंगजेब ने कुलीन अधिकारियों के साथ भेदभाव किया

जिससे अधिकारियों के मन में असंतोष की भावना प्रकट हुई

औरंगजेब और उसके उत्तराधिकारी केवल अपने पूर्वजों की छाया मात्र थे

परंतु उनकी नीतियां पूर्वजों से पूरी तरह भिन्न थी।

 

जमीदारी संकट-

औरंगजेब के शासनकाल के अंतिम वर्षों में जमीदारी और मनसबदारी व्यवस्था को लागू करने में असफल साबित हुए जिसके कारण मनसबदार और जमीदारों में असंतोष फैल गया। दक्कन में मराठों के साथ हो रहे युद्ध के कारण औरंगजेब को बहुत बड़ी हानि पहुंची जिससे वह उत्तर भारत में नजर ना रख सका ऐसी स्थिति में सभी कुलीन वर्ग विद्रोह पर उतर आए।

कृषि व्यवस्था का संकट -

कुलीन वर्ग कृषि से आने वाले अधिक लाभ कमाने के लिए किसानों को प्रताड़ित करने लगे उन्हें किसानों की हो रही बर्बादी से कोई मतलब नहीं था उन्होंने केवल अपने आप को  संपन्न रखने का लक्ष्य बना लिया था। जागीरदारों का एक स्थान से दूसरे स्थान स्थानांतरण होता रहता था जिसके कारण कृषि सुधार की उन्हें कोई परवाह ना थी कृषि में प्रयोग होने वाले उपकरण व तकनीकी सिंचाई के साधन कुछ भी जमीदारों द्वारा किसानों को प्रदान नहीं किया गया जिसके कारण किसानों पर बोझ बढ़ता गया और उन्हें जीवनयापन की मूल आवश्यकताओं से भी वंचित होना पड़ा। किसानों पर लगाए जाने वाला कर इतना अत्यधिक था कि उन्हें आत्महत्या और जमीन छोड़कर जाना

खेती करने से अधिक आसान लगता था।

 

योग्य शासन की कमी -

योग्य शासन की कमी होने के कारण मुगल साम्राज्य का पतन हुआ। क्षेत्रीय शक्तियां बढ़ चढ़कर सामने आने लगी कुलीन वर्ग के लोग भी राजा के प्रतिद्वंद्वी बन गए इस प्रकार एक बहुत बड़ा साम्राज्य छोटे-छोटे भागों में विभक्त हो गया।

 

प्रशासन में स्थायित्व की कमी-

औरंगजेब के बाद योग्य  शासक ना आने से राज्य छोटे-छोटे भागों में विभक्त हुआ औरंगजेब की दक्षिण नीति के कारण उस समय में भी प्रशासन संभालना एक कठिन कार्य बन गया प्रशासन चलाने के लिए एक बड़े राजकोष की आवश्यकता होती है परंतु औरंगजेब की दक्षिण नीति ने मुगल राजकोष को पूरी तरह समाप्त कर दिया और यही समय मुगल साम्राज्य में संकट लेकर सामने आया। साम्राज्य को व्यवस्थित करना साम्राज्य की देखरेख करना एक बड़ा ही संकट पूर्ण कार्य बन गया।

निष्कर्ष -

इस प्रकार देखा जा सकता है कि मुगल साम्राज्य के पतन का कारण कोई एक वजह नहीं बनी योग्य शासन की कमी, दक्कन नीति, औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता, आर्थिक कमी, राजपूतों के साथ बिगड़ते संबंध, क्षेत्रीय शक्तियों का उभरना अन्य बहुत से कारण से मुगल साम्राज्य का पतन हुआ।


 

4)  14-17वी शताब्दी के मध्य भक्ति आंदोलन के उदय के कारणों का परीक्षण कीजिए।

Examine the factors that led to the rise of Bhakti movement during the 14-17th centuries?

भक्ति आंदोलन की शुरुआत सर्वप्रथम दक्षिण भारत से मानी जाती है

धीरे-धीरे यह आंदोलन उत्तर भारत में भी देखे जाने लगे। सल्तनत काल में भक्ति आंदोलन धीरे-धीरे सामने आने लगे थे। उत्तर भारत में इन आंदोलनों को कबीर और संत रामानंद के शिष्य आदि लोगों ने आगे बढ़ाया। उत्तर भारत के अधिकांश लोग वैष्णव आंदोलन में शामिल हुए ब्राह्मणवाद से परेशान लोग भी इन आंदोलनों का हिस्सा बने

भक्ति आंदोलन प्रत्येक स्थान पर एक जैसा नहीं रहा

फिर भी इन आंदोलनों को जोड़ने वाली बात भक्ति और धार्मिक विश्वास था।

इन भक्ति आंदोलनों के उदय होने के बहुत से कारण निम्नलिखित रुप से बताए गए हैं-

 

भक्ति आंदोलन के उदय होने का कारण-

राजनीतिक कारण -

भारतीय उपमहाद्वीप में तुर्की आक्रमण के बाद इस्लाम का उदय हुआ इससे पहले भारत में ब्राह्मणवादी परंपरा के अनुसार हिंदू धर्म प्रचलित था ब्राह्मण मंदिरों में रखी मूर्तियों को ईश्वर का प्रतीक ना बता कर मूर्तियों में ही ईश्वर बताते थे और ब्राह्मण ही थे जो ईश्वर को प्रसन्न कर सकते थे परंतु इस्लाम के आने के साथ यह विचारधारा बदलने लगी तुर्को ने अनेक मंदिरों से धन लूटा जिससे ब्राह्मणों की स्थिति कमजोर हुई। ब्रह्मणवादी परंपरा के सामने अब इस्लाम आकर खड़ा हो गया जिसके कारण ब्राह्मणों का वर्चस्व कम हुआ और उनके अंदर भक्ति आंदोलनों की  उदय करने की आग जलने लगी।

 

सामाजिक आर्थिक कारण-

मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन से पहले जनता की मनोभाव का अत्यधिक शोषण किया जाता था इस बात की पुष्टि कबीर ,नानक, जयंती और तुलसीदास आदि कवियों की कविताओं द्वारा प्रमाणित होता है। भक्ति आंदोलन की तुलना यूरोप के प्रोटेस्टेंट सुधार आंदोलनों से की जाती है। ब्रह्मणवादी परंपराओं से लोग तंग आ चुके थे लोगों ने इन रीति रिवाज को छोड़ना ही अच्छा समझा और एकईश्वरवाद की तरफ जाने लगे। लोगों ने ब्राह्मण धर्म की कटु आलोचना की परंतु कभी भी राज्य और शासक वर्ग को उखाड़ फेंकने की बात नहीं की। निम्न वर्ग की समाज में स्थिति अच्छी नहीं थी। अछूत माने जाते थे।

 

आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन-

नानक ,पीपा , धन्ना और कबीर आदि संतों के एकईश्वरवादी आंदोलनों की व्यापक लोकप्रियता होने लगी। तुर्को के आक्रमण से शहरी वर्ग प्रभावित हुआ तुर्को ने विलासिता की वस्तुओं का अत्यधिक उपयोग किया जिससे शहरी क्षेत्रों में शिल्पकारों की संख्या तेज हुई इसी कारण शहरी वर्ग में एकेश्वरवाद  आंदोलनों की ओर अधिक आकर्षित हुए। ब्राह्मणों की धार्मिक अनुष्ठानों में होने वाला खर्च  साधारण व्यक्तियों के अनुरूप नहीं था। ब्रह्मणवादी परंपराओं में महिलाओं को भी निम्न  स्थिति में रखा गया था।

बहुत से विभिन्न - विभिन्न कारण मिलकर भक्ति आंदोलन के उदय का कारण बने।

उत्तर भारत में एकेश्वरवाद आंदोलन सिख धर्म में भी बढ़ चढ़कर भाग लिया।

सिख धर्म हिंदू या मुस्लिम दोनों की तरफ ना जाकर एक अलग रास्ता अपने लिए बनाता हुआ आगे निकल गया।

उपमहाद्वीप के अलग-अलग स्थानों पर भक्ति आंदोलन देखने को मिलते हैं इन आंदोलन के उदय का प्रमुख कारण राजनीतिक, सामाजिक ,आर्थिक और धार्मिक कारण बने।



5)  मुगल वास्तु कला की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा कीजिए?

Discuss the main features of the Mughal architecture?

16 से 18 वीं शताब्दी के दौरान वास्तुकला का इतिहास मुख्य रूप से मुगल साम्राज्य के भवन निर्माण से संबंधित रहा इस बीच केवल 15 वर्ष का शासन अंतराल आया। अलग-अलग मुगल शासकों के समय विभिन्न प्रकार की वास्तुकला पाई जाती है

जिनका आज भी हम प्रत्यक्ष उदाहरण देख सकते हैं।

 

बाबर के समय वास्तु कला -

बाबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक थे इनका अधिकतम समय अपने नए साम्राज्य को संभालने में चला गया दुर्भाग्यवश इन्हें इमारतों का निर्माण करने का समय ना मिला जो इमारतें इनके द्वारा निर्माण की गई वर्तमान समय में वे नाम मात्र रह गई हैं

1526 में बाबर ने पानीपत और संभल में दो मस्जिद बनवाई परंतु आज उनका केवल ढांचा रह गया है। बाबर द्वारा ईरानी शैली से बगीचे और मंडप बनवाए गए

आगरा में स्थित रामबाग और जहराबाग नामक दो बगीचे बनवाएं परंतु इनमें काफी गलतियां पाई जाती हैं।

 

हुमायूं की इमारतें -

बाबर की तरह हुमायूं का भी अधिकतर समय युद्ध में चला गया क्योंकि इस समय मुगल साम्राज्य अपनी अस्थिर स्थिति में था । हुमायूं द्वारा कोई खास इमारतें इतिहासकारों को प्राप्त नहीं हुई है। परंतु उसकी मृत्यु के बाद उसकी पत्नी हमीदा बानो बेगम की देखरेख में हुमायूं का मकबरा बनाया गया जो स्थापत्य कला का एक अच्छा उदाहरण है

यह मकबरा अकबर के शासनकाल में बनाया गया परंतु यह अकबर की वास्तुकला से भिन्न था इसीलिए इसे अकबर की वास्तुकला से अलग देखा जाता है हुमायूं का मकबरा ईरान के वास्तुकार मिराक मिर्जा गियास द्वारा निर्मित किया गया। हुमायूं के मकबरे में पहली बार बाग का निर्माण किया गया। इसे लाल बलुआ पत्थर से तैयार किया गया है इसका आकार अष्ट कोणिय और एक ऊंचे गुम्बद से आच्छादित है। इस प्रकार देखा जा सकता है कि  हुमायूं के समय में,  हुमायूं का मकबरा ही सबसे अधिक प्रसिद्ध रहा।

 

अकबर की वास्तुकला -

अकबर के शासन काल हिन्द- इस्लामी स्थापत्य कला की मिली जुली चीजें देखने को प्राप्त होती हैं।

 

शैलीगत रूप --

भवन निर्माण मुख्य रूप से लाल बलुआ पत्थर द्वारा किया गया

मेहराब की संरचना को अलंकृत किया गया

नक्काशी को अलंकृत करने के लिए उभार आ जाता था और उसमें चमकीले रंगों के पत्थर लगाए जाते थे

इस समय देसी तकनीकों को बढ़ावा मिला।

 

प्रसिद्ध इमारतें-

अकबर द्वारा बनाई गई प्रसिद्ध इमारतों को दो भागों में बांटा जाता है

प्रथम चरण में अकबर द्वारा लाहौर में किले ,आगरा और इलाहाबाद में किलो और भवनों का निर्माण किया गया।

दूसरे चरण में फतेहपुर राजधानी का निर्माण किया।

 

प्रथम चरण-

अकबर के शासन काल के दौरान सर्वप्रथम आगरा के किले का निर्माण किया गया इस किले को एक महल का रूप दिया गया। इसकी बड़ी और विशालकाय दीवारें एक महान और शक्तिशाली शासक की याद दिलाती है किले के भीतर अकबर ने बंगाल और गुजरात शैली की कई इमारतें बनवाई थी परंतु जहांगीर महल को छोड़कर शाहजहां ने अन्य सभी संरचनाओं को छुड़वा कर फिर से पुनर्निर्माण करवाया था वर्तमान समय में किले का दिल्ली दरवाजा और जहांगीर महल ही अकबर के काल के भवनों का एकमात्र प्रसिद्धि है। किले के अंदर दिल्ली दरवाजा एक अच्छी वास्तुकला का उदाहरण है इसमें सामने की ओर से मध्य में मेहराब दिखाई पड़ते हैं जहांगीर महल का निर्माण भी अकबर द्वारा करवाया गया इसे लाल बलुआ पत्थर से बनाया गया यह हिंदू और इस्लामी भवन निर्माण पद्धति के मिले-जुले उदाहरण है पूर्व दिशा की और अधिक नक्काशी की गई है। लाहौर और इलाहाबाद के किले की भी यही विशेषताएं देखने को मिलती है

केवल अजमेर का किला अकबर द्वारा दूसरे ढंग से बनवाया गया।

 

दूसरा चरण-

दूसरे चरण की शुरुआत नई राजधानी के निर्माण से देखी जा सकती है यह आगरा से 40 किलोमीटर पश्चिम में स्थित है नई राजधानी का नाम अकबर द्वारा फतेहपुर रखा गया। शहर का निर्माण कुछ  इस  प्रकार किया गया कि दीवाने आम और जामा मस्जिद जैसे सार्वजनिक स्थल निजी महल के ही अंग बन गए फतेहपुर सीकरी में भवनों को दो कोठियों में विभाजित किया गया धार्मिक और गैर धार्मिक धार्मिक भवनाओं के अंतर्गत जामा मस्जिद, बुलंद दरवाजा , शेख सलीम चिश्ती की मजार को रखा गया गैर धार्मिक भावनाओं में प्रशासनिक भवन और अन्य भवनों को रखा गया

1596 में अकबर ने दक्षिण प्रवेश द्वार के स्थान पर बुलंद दरवाजा विजय के प्रतीक के रूप में निर्मित किया यह लाल और पीले बलुआ में पत्थर से बनाया गया है इसमें मेहराबों की रूपरेखा सफेद संगमरमर के उपयोग से की गई है बाहर की ओर से सीढ़ियों की एक ऊंची लंबी कतार के कारण और ज्यादा ऊंचा हुआ भव्य दिखाई पड़ता है। उत्तर पश्चिम कोने में जामा मस्जिद के बरामदे में सलीम चिश्ती की मजार है यह स्थापत्य कला का एक सुंदर नमूना है भारत में संगमरमर के कलात्मक उपयोग का एक अच्छा उदाहरण है।

फतेहपुर सीकरी के महलों में अनेक कक्ष और हिस्से बनाए गए जिसमें विशाल जोधा महल भी शामिल है यह अत्यधिक भव्य और आडंबर हीन है बाहर की दीवार समतल है मुख्य भवन अंदर की ओर है जो आगे आंगन में जाकर खुलता है उत्तर की ओर गलियारा देखने को मिलता है। अकबर के वास्तु कला में मुख्य रूप से नक्काशी, लाल बलुआ पत्थर का प्रयोग, संगमरमर का प्रयोग दिखाई पड़ता है।

 

शाहजहां की स्थापत्य कला-

1605 अकबर की मृत्यु हो चुकी थी अब मुगल शासक शासन एक स्थिर अवस्था में आ चुका था जहांगीर और शाहजहां के पास राजकोष में जो  धन था जो उन्होंने भवन निर्माण में प्रयोग किया।

 

प्रमुख विशेषता-

लाल बलुआ पत्थर के स्थान पर सफेद संगमरमर का प्रयोग अधिक किया गया

मेहराब को नया रूप दिया गया इसमें घुमावदार पत्रण का प्रयोग हुआ जिसमें आमतौर पर नुकीले सिरे होते थे।

दांतेदार मेहराब के संगमरमर के तोरण पथ पर होना एक आम बात थी।

दोहरे गुंबद का चलन आम हो चुका था।

 

प्रमुख इमारतें--

अकबर का मकबरा आगरा से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है इसकी रूपरेखा स्वयं अकबर द्वारा बनाई गई परंतु इसे पूर्ण जहांगीर द्वारा किया गया यह मकबरा अकबर और जहांगीर की स्थापत्य कला का उदाहरण है इस परिसर के बीच में मकबरा स्थित है जो चारों ओर से बागान द्वारा गिरा हुआ है। मकबरे वाला भवन चौकोर आकार का है जिसमें तीन मंजिलें हैं पहली मंजिल पर छत युक्त चबूतरा है जो तहखाना  का काम करता है। बीच की मंजिल में लाल बलुआ पत्थर का प्रयोग किया गया है तीसरी मंजिल पर संगमरमर का प्रयोग किया गया है जो एक खुला सभागार है। इसमें खास बात यह है कि अलंकरण के परंपरागत रूप को छोड़कर फूल पत्ती के बेल बूटे ,हंस, कमल ,चक्र आदि प्रतीकों का प्रयोग किया गया है।

जहांगीर चित्रकला का बहुत बड़ा प्रेमी और संरक्षक था उसे जानवरों पेड़-पौधों फूलों आदि से प्रेम था यह उसके काल के चित्रों में भी देखा जा सकता है इसीलिए उसने भवन निर्माण की अपेक्षा बागानों और फुलवारियों  के निर्माण पर अधिक जोर दिया।

 

जहांगीर-

पिता से विपरीत जहाँगीर एक महान भवन निर्माता बनकर उभरा इस के शासनकाल के दौरान भवन निर्माण में संगमरमर का बड़ा प्रयोग किया गया शाहजहां के शासनकाल में सबसे प्रसिद्ध इमारत ताजमहल है। ताजमहल एक चौकोर इमारत है। इमारत के शीर्ष पर खूबसूरत उभरे हुए गुंबद हैं उसके ऊपर उल्टा कलश, कमल और एक धातु निर्मित कलश स्थित है चारों और मीनारें स्थित है। मूल रूप से देखा जाए जहांगीर ने वास्तुकला में बहुत अधिक परिवर्तन कर उसे अपने उच्चतर स्थान तक ले जाने का कार्य किया।

 

औरंगजेब अंतिम चरण-

औरंगजेब के द्वारा मुख्य रूप से स्थापत्य कला में कोई रुचि नहीं ली गई। औरंगजेब के समय स्थापत्य कला पर कोई जोर नहीं दिया गया और इनका महत्व काफी घट गया औरंगजेब के द्वारा बनाए गए भवन काफी कम मात्रा में देखने को मिलते हैं औरंगजेब द्वारा बनवाई गई इमारतों में औरंगाबाद स्थित है जो उसकी बेगम रबिया का मकबरा लाहौर की बादशाही मस्जिद और दिल्ली के लाल किला में बनी मोती मस्जिद है। आकार और बनावट में बादशाही मस्जिद दिल्ली की अन्य मस्जिदों से मेल खाती है। औरंगजेब की पत्नी का मकबरा ताजमहल की नकल करने की कोशिश की गई है परंतु स्तंभों की सही स्थिति ना होने के कारण पूरा भवन बिखर गया

 

निष्कर्ष -

मुगल साम्राज्य में कभी भी वास्तुकला का स्वरूप एक जैसा नहीं रहा प्रत्येक शासक के समय वास्तुकला में कुछ ना कुछ परिवर्तन देखने को मिलते हैं किसी शासक ने वास्तुकला में अधिक रूचि ली तो किसी ने इस पर ध्यान ना दिया मुगल स्थापत्य कला में ही औरंगजेब जैसे कला प्रेमी ना होने के उदाहरण भी मिलते हैं और वही शाहजहां जैसे प्रसिद्ध भवन निर्माता भी देखने को मिलते हैं।



6 ) भारत में चिश्ती सिलसिले के विकास की संक्षिप्त चर्चा कीजिए भारत में इसकी लोकप्रियता के क्या कारण थे?

Briefly discuss the growth of Chishti Silsilah in India? What the reasons of its popularity in India?

भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम के उदय के साथ राजनैतिक और धार्मिक आयाम भी सामने आए। इस्लामिक दुनिया में भी कट्टरपंथी परंपराएं उभरकर सामने आई सूफी संत वे लोग होते थे जो इस्लामिक परंपरा में भरोसा ना करके ईश्वर की आराधना करते थे। सूफी अपने आप को पूरी तरह अल्लाह को  समर्पण कर दिया करते थे। सूफी की प्रसिद्धि इस्लामिक लोगो से बाहर हिंदू धर्म में भी थी। सूफी अपने सिलसिले चलाया करते थे जिसमें लोगों के कल्याण का कार्य हुआ करता था। भारत में सुहारावर्दी सिलसिला , चिश्ती सिलसिला,  नक्शबंदी सिलसिला और अन्य सूफी सिलसिले प्रसिद्ध हुए।

 

भारत में सूफी सिलसिले की शुरुआत-

भारत में आने वाले प्रारंभिक सूफी का नाम अल- हुजविरि था इन की दरगाह मजार लाहौर में स्थित है इनके द्वारा कश्फ उल  महजूब नामक ग्रंथ की रचना की गई। सूफियों ने भारत में इस्लामी दुनिया के कई संप्रदाय स्थापित किए और अपनी संस्थाएं विकसित की।

14 शताब्दी  के मध्य तक मुल्तान से लेकर बंगाल और पंजाब से लेकर देवगिरी तक सूफी संप्रदाय की स्थिति सक्रिय रही।

 

सिलसिले का अर्थ

सिलसिले का अर्थ शेख और मुरीद के बीच में संबंध को दिखाता है। शेख जिसे हम साधारण भाषा में गुरु कह सकते हैं और  मुरीद उस गुरु का शिष्य होता है शेख अपने सभी मुरीदो में से सर्वोच्च मुरीद को अल्लाह की राह पर आगे चलाता है और अपना सिलसिला आगे बढ़ाता है इसी प्रकार जब वह मुरीद शेख बन जाता है तो अपने सभी मुरीद  में से इस सिलसिले को आगे बढ़ाता है।

इसीलिए सिलसिला का अर्थ शेख और मुरीद के संबंध को दर्शाता है।

चिश्ती सिलसिला-

ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती सीजी स्थान में जन्मे थे वह गौरी के आक्रमण काल के दौरान भारत आए। 1206 के बाद भी अजमेर जाकर बस गए तथा उन्होंने मुस्लिम व गैर मुस्लिमों के लिए कार्य किया। दिल्ली में ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी चिश्ती के उत्तराधिकारी थे।

चिश्ती सिलसिले में प्रसिद्ध शेख-

चिश्ती सिलसिला ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती द्वारा प्रारंभ किया गया इनके बाद बख्तियार काकी,फिरोज उद्दीन आदि प्रसिद्ध शेख चिश्ती सिलसिला में आए। दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया और नसरुद्दीन सबसे प्रसिद्ध सूफी रहे निजामुद्दीन औलिया के बाद किसी भी सूफी को इतनी प्रसिद्धि प्राप्त ना हो सकी।

 

भारत में चिश्ती  सिलसिले की लोकप्रियता के कारण-

स्थानीय भाषा का प्रयोग-

स्थानीय लोग कभी शासक के साथ इतना जुड़ाव महसूस नहीं कर सकते जितना वे सूफी के साथ महसूस करते थे शासक से मिलने के लिए एक निश्चित समय व नियम तय था परंतु सूफी के पास प्रत्येक व्यक्ति की समस्या का हल था और वे लोगों से स्थानीय भाषाओं में बातचीत कर उनसे गहरे संबंध बना लेते थे।

 

निष्पक्ष सेवा-

सूफी मुस्लिम और गैर मुस्लिम में बिना भेदभाव के समस्या का हल प्रदान किया करते थे जिससे उनकी श्रद्धा दोनों ही वर्गों में बहुत अधिक बढ़ती गई।

 

साधारण जीवन-

आम जन सूफी को अपने सामान मानता था उनकी साधारण वेशभूषा व रहन-सहन लोगों को उनकी ओर आकर्षित करने लगा इस आकर्षण के कारण इस समय में लोगों ने अपना धर्म भी स्वेच्छा से परिवर्तन किया।

 

लोगों के साथ जुड़ाव-

लोगों की स्थानीय भाषा, साधारण जीवन, व समस्या सुलझाने का ढंग इन सब चीजों से धीरे -धीरे चिश्ती सिलसिला लोगों के बीच एक अलग ही जगह बनाता रहा वर्तमान समय में भी अन्य सिलसिले से चिश्ती सिलसिला कहीं अधिक प्रसिद्ध है।

 

संगीत द्वारा अल्लाह जुड़ना-

सूफी कव्वाली, संगीत आदि का सहारा लेकर लोगों को अल्लाह से जोड़ते थे वह किसी भी प्रकार का कर्मकांड नहीं किया करते थे।

 

भारतीय परंपराओं को शामिल करना-

सिलसिले में भारतीय गैर मुस्लिम भी शामिल हुए सिलसिले के अंदर साधारण जीवन व्यतीत करना ,मुंडन कराना ,संगीत के द्वारा भक्ति कराना , दंडवत प्रणाम करना आदि प्रथाएं हिंदू धर्म से मेल खाती थी जिसके कारण गैर मुस्लिम भी सिलसिले में शामिल हुए और यह भारतीय उपमहाद्वीप में प्रसिद्ध हुआ।

 

भारतीय प्रतीकों की सहायता-

चिश्ती सिलसिला ने भारतीयों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए भारतीय प्रतीकों रीति रिवाज, मोहरे , अनुष्ठान आदि का प्रयोग किया इसी कार्य को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपनी भाषा का प्रयोग ना करके हिंदी भाषा में लोगों से बातचीत करना शुरू किया।

 

निचले वर्ग का आकर्षण-

चिश्ती सिलसिले में सभी को समान समझा जाता था इसी कारण उपमहाद्वीप में निचली जाति जो ब्राह्मणवाद से परेशान थी वह चिश्ती सिलसिले की राह पर चल पड़ी किसान, शिल्पकार और व्यापारी तक चिश्ती संप्रदाय के अनुयाई बन गए।

 

कर्मकांडों को अस्वीकार-

चिश्ती सिलसिला ने लोगों के लिए प्रेरणादायक स्रोत बनने का कार्य किया उन्होंने उलमा की कट्टरपंथी चीजों को शामिल न करके इस्लाम का सरल वर्णन किया इस्लाम की शिक्षा सूफी शिक्षा में घोल दी गई जिससे लोग चिश्ती संप्रदाय की ओर आकर्षित हुए। इसी सिलसिले में शेख साधारण परिवार के हुआ करते थे जिससे वह लोगों के बीच प्रेरणा स्रोत का भी कार्य करने लगे।

 

निष्कर्ष -

इस प्रकार देखा जा सकता है कि चिश्ती सिलसिला अन्य सिलसिले से किस प्रकार भिन्न है चिश्ती सिलसिला ने कुछ परिवर्तनों के साथ इस्लाम को प्रस्तुत करके अपने सिलसिले को आगे बढ़ाया वर्तमान समय में भी चिश्ती सिलसिला सबसे अधिक लोकप्रिय है।

 

7) हुमायूं की प्रारंभिक कठिनाइयों की चर्चा कीजिए ?

उसने उनका सामना किस प्रकार किया।

Discuss early problems faced by Humayun. How did he overcome it?

बाबर मुगल साम्राज्य का संस्थापक था बाबर ने अपने साम्राज्य को स्थापित करने हेतु कई युद्ध लड़े और विजय हासिल की बाबर का संघर्ष राजपूत राज्य , अफगान सरदार के साथ रहा परंतु उसे कुलीन वर्ग द्वारा समर्थन प्राप्त था

इसके बिल्कुल उलट हुमायूं का जीवन रहा बाबर ने अपनी संपत्ति चार पुत्रों में विभाजित की 

हुमायूं दिल्ली पर राज करना चाहता था हुमायूं के जीवन में अनेक प्रकार के संघर्ष आते रहे जिसके कारण उसका जीवन कठिनाइयों से भरा रहा

हुमायूं अपने पुत्र अकबर के साथ समय भी व्यतीत ना कर सका।

 

हुमायूं की प्रारंभिक कठिनाइयां-

समर्थन प्राप्त ना होना-

हुमायूं को कुलीन वर्ग से कभी आदर सम्मान और समर्थन प्राप्त नहीं हुआ कुलीन वर्ग हुमायूं के शासक बनने से कभी पसंद नहीं था

जिन भारतीय कुलीन वर्ग ने बाबर का शासन स्वीकार किया था

 वह भी हुमायूं के समय अलग हो चले थे।

 

कालिंजर पर आक्रमण-

हुमायूं ने  1531 में सर्वप्रथम कालिंजर पर आक्रमण किया।

कालिंजर के शासक का नाम रूद्र प्रताप देव था।

हुमायूं ने कलिंजर पर आक्रमण किया परंतु कई दिन किले के बाहर बैठने के बाद रूद्र प्रताप देव ने स्वयं धन-संपत्ति देकर हुमायूं की अधीनता स्वीकार कर ली।

 

दोहरिया का युद्ध-

अफगान के नेतृत्व शासक मोहम्मद लोधी अवध और बंगाल आदि क्षेत्रों में अपना विस्तार कर रहे थे जिसके कारण उनका संघर्ष हुमायूं से हुआ इस संघर्ष में मोहम्मद लोधी का साथ शेरखान द्वारा दिया गया। दोहरिया के युद्ध में हुमायूं को जीत हासिल हुई।

 

चुनारगढ़ का किला

हुमायूं ने एक लंबे समय तक चुनार गढ़ के किले पर युद्ध के लिए विशाल सेना बैठाई परंतु शेरशाह के आत्मसमर्पण के बाद दोनों में संधि हो गई जिसके तहत हुमायूं ने युद्ध ना करके शेरशाह  के पुत्र कुतुब खा को अपनी सेवा में रख लिया।

 

बहादुर शाह तथा हुमायूं-

बहादुर शाह ने हुमायूं को वफादारी और मित्रता का आश्वासन देकर उसके साथ धोखा किया उसने मालवा को अपना शिकार बना लिया मालवा व्यापारिक तथा कृषि की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र था। इसी दौरान हुमायूं पर पश्चिम एवं पूर्व की ओर से संयुक्त आक्रमण की स्थिति पैदा होने लगी इसी दौरान बहादुर शाह ने अपने सैनिक अभियानों से अपनी स्थिति मजबूत की बहादुर शाह के संघर्ष में हुमायूं ने मालवा एवं गुजरात पर अधिकार कर लिया परंतु एक  वर्ष के अंदर ही गुजरात और मालवा हुमायूं से स्वतंत्र हो गए।

 

भाइयों के साथ संघर्ष-

बाबर की मृत्यु के बाद साम्राज्य का विभाजन हुआ जिसमें कामरान को काबुल तथा गांधार दिया गया। असकरी को संभल का क्षेत्र तथा हिंदाल को मेवात का  क्षेत्र दिया गया।

उसने अपने चचेरे भाई सुलेमान मिर्जा को बदख्शां का प्रदेश दिया।

संपत्ति को लेकर सभी भाइयों में दिल्ली पर सत्ता पाने की चाहत थी इसी चाह को पूरा करने के लिए हिन्दाल  ने मेवात से आगरा आकर अपने आप को स्वतंत्र बादशाह घोषित किया। परंतु इसी दौरान हुमायूं चुनारगढ़ के युद्ध (1538)  को जीतकर आगरा की ओर आ रहा था परंतु बीच में उसका संघर्ष  शेरशाह के साथ हुआ जिसे चौसा का युद्ध के रूप में जाना जाता है इस युद्ध में हुमायूं की हार हुई और उसे नदी में जाकर अपनी जान बचानी पड़ी। इसके पश्चात हुमायूं और शेरशाह के बीच कन्नौज का युद्ध 1540 में लड़ा गया इसमें शेरशाह ने हुमायूं को दोबारा पराजित कर दिल्ली और आगरा परखना अधिकार जमा लिया। इस युद्ध के कारण हुमायूं को सिंध जाकर शरण लेनी पड़ी तथा अपनी पत्नी व पुत्र को राणा अमरसाल के महल उमेरकोट के संरक्षण में छोड़ना पड़ा।

 

निष्कर्ष -

इस प्रकार देखा जा सकता है कि हुमायूं का शासन दो भागों में बंटा रहा

प्रारंभ में उसके द्वारा की गई गलतियो से शेरशाह ने अपनी स्थिति मजबूत की और उसे हराकर सिंध भगा दिया

परंतु 1555 में हुमायूं पुनः भारत आया और उसने अपने साम्राज्य को पुनः प्राप्त किया। मयूर के पास एक अस्थिर साम्राज्य प्राप्त हुआ जिससे उसे का युद्ध लड़ने पड़े।



8) मुगलों के अधीन राजस्व निर्धारण के तरीकों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए?

Critically examine the methods of revenue assessment under the Mughals?

मुगल साम्राज्य एक लंबे समय तक रहने वाला साम्राज्य था इस साम्राज्य की स्थापना बाबर द्वारा की गई थी साम्राज्य में बहुत सारी विशेषताएं पाई जाती थी जिसमें से प्रशासनिक विशेषता भी शामिल थी मुगल अपने प्रशासन को बहुत भली-भांति चलाना जानते थे। अकबर द्वारा साम्राज्य को स्थिर किया और विस्तार किया गया

मुगलों के अधीन राजस्व निर्धारण के अलग-अलग स्रोत हुआ करते थे

जैसे - भूमि कर, किसानों से कर आदि


मुगलों के अधीन राजस्व निर्धारण-

मुगल साम्राज्य में मुख्य रूप से राजस्व भूमि से लिया जाता था साम्राज्य में भूमि विभिन्न प्रकार की हुआ करती थी जिस पर भूमि के अनुसार ही कर निर्धारित था।

 

भू राजस्व -

भू राजस्व को आय एक अच्छा स्रोत माना जाता था। बाबर से लेकर औरंगजेब के समय काल तक भू राजस्व एक अच्छी खासी मात्रा में आया करता था। भू राजस्व मुख्य रूप से दो प्रणालियों के द्वारा एकत्रित किया जाता था।

दहसाला बंदोबस्त- फसल के 10 साल का औसत निकाल कर उस पर कर निर्धारित करना। इस व्यवस्था को टोडरमल व्यवस्था के नाम से भी जाना जाता था।

जब्ती प्रणाली- भूभाग पर कौन सी फसल उगाई जा रही है इसके आधार पर कर निर्धारित करना।

अकबर के शासन काल में यह दोनों ही भू राजस्व की व्यवस्था अत्यधिक प्रचलित रही।

अकबर द्वारा 1/ 2 या 1/3 यानी आय का 50% या 33% कर किसानों से लिया जाता था। अकबर ने प्राकृतिक आपदा आने पर कई बार किसानों को कर मुक्त भी किया। अकबर द्वारा किसानों के लिए कई नहर, झीलों का निर्माण भी करवाया गया।

औरंगजेब के शासनकाल में 2/3 यानी 66% तक कर लिया करता था जिससे किसान अपनी भूमि छोड़कर भाग जाया करते थे।

 

भूमि के प्रकार-

अकबर द्वारा भू राजस्व को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न प्रकार की भूमि पर अलग-अलग मात्रा में कर लगाया गया जो इस प्रकार है-

पोलज भूमि- जिस भूमि पर प्रतिवर्ष कृषि कार्य किया जाता था उसे पोलज भूमि का नाम दिया गया। इसमें कर अधिक लगाया जाता था।

परती भूमि- इस प्रकार की भूमि पर कृषि 1 या 2 वर्ष छोड़ कर की जाती थी। पोलस भूमि की अपेक्षा कृषि भूमि पर कर कम हुआ करता था।

चाचार/ छज्जर भूमि - इस प्रकार की भूमि में 3 से 4 वर्षों में कृषि की जाती थी। परती भूमि की अपेक्षा इसमें कम कर लिया जाता था।

बंजर भूमि- जिस भूमि पर 5 वर्षों तक कृषि हुई हो उसे बंजर भूमि कहा जाता था। इस प्रकार की भूमि को कर मुक्त रखा जाता था ताकि लोग बंजर भूमि के प्रति आकर्षित होकर अपनी मेहनत से इसे उपजाऊ बनाकर खेती करना प्रारंभ करें।

जजिया कर- राजस्व का एक हिस्सा जजिया कर द्वारा भी वसूला जाता था

यह जजिया कर अकबर द्वारा बंद करा दिया गया

परंतु औरंगजेब के द्वारा इसे पुनः स्थापित किया गया।

चुंगी कर- विदेशी व्यापार से आने वाले वस्तुओं पर चुंगी कर लगाया जाता था जो आय का एक साधन था।

युद्ध से प्राप्त धन- मध्यकालीन इतिहास में सर्वाधिक युद्ध में लूटपाट द्वारा एकत्रित किया गया धन ही हुआ करता था यह धन आय का एक बड़ा स्रोत था। युद्ध में जीते गए राज्यों से जो धन प्राप्त होता था उसे  राजकोष में शामिल कर लिया जाता और राज्य के निर्माण के लिए लगाया जाता था।

निष्कर्ष -

इस प्रकार देखा जा सकता है कि मुगल काल में राजस्व निर्धारण के विभिन्न विभिन्न तरीके थे जिससे मुगल अपने साम्राज्य को चलाया करते थे।

  

9 ) विजयनगर साम्राज्य के स्थानीय प्रशासन की चर्चा कीजिए?

Discuss  local administration under the Vijayanagar empire?

 

हरिहर और बुक्का वारंगल के अधीन कार्यरत थे दिल्ली सुल्तानों के द्वारा वारंगल पर विजय प्राप्त करने के बाद हरिहर ,बुक्का को दिल्ली ले जाया गया उन्हें इस्लाम स्वीकार करवाया गया स्थानीय लोगों द्वारा काम्पिली पर आक्रमण किया गया जिसमें दिल्ली के गवर्नर की पराजय हुई इस संकट के समय सुल्तान ने हरिहर और बुक्का को क्षेत्र का शासन चलाने हेतु नियुक्त किया सुल्तान द्वारा पुनः शक्ति प्राप्त करने के बाद हरिहर और बुक्का ने 1336 में स्वतंत्र हिंदू राष्ट्रीय की स्थापना की उन्होंने पुनः हिंदू धर्म को ग्रहण कर लिया इसके बाद एक से बढ़कर एक राजा विजयनगर में आए और उन्होंने विजयनगर को ऊंचाइयों तक पहुंचाया इसने कृष्णदेव राय का नाम सबसे ऊपर रखा जाता है।

विजयनगर साम्राज्य के काल में स्थानीय प्रशासन की चर्चा कुछ इस प्रकार की गई है।

विजयनगर में प्रशासन कुछ इस प्रकार था

केंद्रीय प्रशासन ( राजा, युवराज ,मंत्री परिषद, न्याय प्रशासन ,भू राजस्व आदि)

प्रांत ( नायकर व्यवस्था)

वलनाडू  (कोट्टरम)

 नाडु (जिला)

स्थल(तहसील)

ग्राम (गांव)

केंद्रीय प्रशासन-

अन्य साम्राज्य की भांति विजयनगर साम्राज्य में भी केंद्र का मुखिया राजा होता था राजा सर्वोपरि होता था। राजा राय,नरपति,वेद,वैदिक मार्ग के रक्षक आदि उपाधि धारण किया करते थे। शासक अपने आपको शिव के  प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करते थे। राजा अपने उत्तराधिकारी को पहले ही नियुक्त कर दिया करता था जिसे युवराज के नाम से जाना जाता था राज्य में मंत्रिपरिषद का गठन मुख्यतः तीन भागों में विभाजित था।

राज परिषद - इनकी सलाह पर राजा निर्णय लिया करता था।

मंत्री परिषद - यह साम्राज्य में सबसे महत्वपूर्ण संस्था मानी जाती है इसमें 20 लोगों का समूह हुआ करता था। इस संस्था के प्रमुख को सभा नायक के नाम से जाना जाता था। मंत्री परिषद के सदस्यों को प्रधानी कहा जाता था।

सामान्य परिषद- इस परिषद के अंतर्गत राज्य परिषद व मंत्री परिषद के दोनों लोग शामिल हुआ करते थे।

 

प्रांतीय व्यवस्था / नायकंर व्यवस्था -

इसे  नायकंर व्यवस्था के नाम से भी जाना जाता था। प्रांत को मंडल ,चावड़ी व राज्य के नाम से  जाना जाता था। प्रांत के प्रमुख को मंडलेश्वर या दंड नायक नाम से जाना जाता था इतिहासकार एच कृष्ण शास्त्री के अनुसार विजय नगर में 6 प्रांत थे।

नायकंर व्यवस्था- यह प्रांतीय स्तर की व्यवस्था थी इसे सर्वप्रथम काकतीय वंश के लोगों द्वारा स्थापित किया गया। सर्वाधिक नायकंर तमिलनाडु क्षेत्र में थे। सेनानायक और योद्धा को विजयनगर में नायक क्या अमर नायक की पदवी दी जाती थी।

इस व्यवस्था के अंतर्गत जमीन के बड़े भूभाग को छोटे टुकड़ों में बांट दिया जाता था। उस बड़े भूभाग में से एक छोटा भूमि का टुकड़ा सेनापति को वेतन के रूप में दिया जाता था। इस भूमि के टुकड़े को अमरम् कहा जाता था। इस भूमि का स्वामी अमर नायक के लाता था।

अमरम् पर वंशानुगत अधिकार था।

 इतिहासकारों के पास नायकंर  संस्था का साक्ष्य दो पुर्तगाली विद्वान फरनाओ नूनिज और डोमेगो पाएस द्वारा किया गया है जो कृष्णदेव राय की शासनकाल में भारत की यात्रा पर आए थे।

 

अमर नायक के कार्य-

शांति स्थापित करना

आय का एक निश्चित भाग केंद्र को राजस्व के रूप में देना

केंद्र के लिए सेना का गठन करना

 

आयगंर व्यवस्था-

यह ग्रामीण स्तर की व्यवस्था थी इसमें 12 ग्रामीण अधिकारियों का एक समूह हुआ करता था। इनकी नियुक्ति केंद्र द्वारा की जाती थी। इन्हें वेतन के रूप में भूमि का टुकड़ा दिया जाता था जिससे मान्य भूमि नाम दिया गया। यह अपने पद को बेच सकते थे तथा यह वंशानुगत हुआ करता था।

 

राजस्व व्यवस्था-

राजस्व व्यवस्था में भू राजस्व सबसे अधिक हुआ करता था इसके लिए एक अलग विभाग का निर्माण किया गया जिससे अटावने कहा जाता था भू राजस्व को शिष्ट का नाम दिया गया था। भू राजस्व आय का 1/6 भाग हुआ करता था। भूमि की गुणवत्ता के आधार पर कर का निर्धारण किया जाता था। कृष्णदेव राय ने भूमिका सर्वेक्षण करवाकर भू राजस्व पुनः निर्धारित किया। भूमि के अतिरिक्त बाजार कर, संपत्ति कर, औद्योगिक कर आदि कर लगाए जाते थे।

नाडु-

नाडु जिला स्तर का प्रशासन था इसमें केंद्र के द्वारा नियुक्ति की जाती थी इस संस्था को नट्टार कहा जाता था। इसकी सदस्यों को नारतवार कहां जाता था

केंद्र के द्वारा यहां महा दंडनायक की नियुक्ति भी की जाती थी।

 

निष्कर्ष -

इस प्रकार कहा जा सकता है कि विजयनगर साम्राज्य एक विशाल साम्राज्य था

जिसने अपनी अपने प्रशासन को नियोजित कर आगे बढ़ाया।

 

10) जमीदार कौन थे उनके अधिकारों तथा प्राधिकारो की चर्चा कीजिए?

Who were Zamindars? Discuss the rights and perquisites?

दिल्ली सल्तनत के समय वेतन देने के स्थान पर भूमि का हिस्सा दिया जाता था

जिसे इक्ता कहा जाता था  तथा इसके प्राप्तकर्ता को इक्तादार कहा जाता था

उसी प्रकार मुगल काल में भी इस व्यवस्था को अपनाया गया परंतु यहां जमीन को जागीर तथा प्राप्तकर्ता को जागीरदार कहा गया।

यह व्यवस्था अकबर के शासन काल में पूर्ण रूप से विकसित हुई

परंतु इसका प्रारंभ बाबर के समय से हो चला था।

व्यवस्था का संगठन-

अकबर के शासन काल में सभी शत्रु को मोटे तौर पर जागीर में विभाजित किया गया। पहले कार्य के बदले में वेतन राजकोष से दिया जाता था परंतु बाद में उन्हें वेतन के अनुसार जमीन प्रदान की जाने लगी।

 

जमीदार या जागीरदार के अधिकार

वंशानुगत भूमि

जमींदार को प्रदान की गई भूमि वंशानुगत हुआ करती थी

यह भूमि जमींदार के पुत्र को भी आगे चलकर प्रदान की जाती थी

इक्ता व्यवस्था में इक्तादारों को वंशानुगत अधिकार प्राप्त नहीं थे।

 

भूमि सुधार

जमीदारों को वंशानुगत भूमि देने से सबसे बड़ा लाभ भूमि सुधार का हुआ।

भूमि वंशानुगत होने के कारण जमींदार भूमि की देखरेख किया करता था।

जिससे भूमि सुधार के कार्य भी हुए।

 

सैनिक

जमींदार अपनी जमीनों पर सैनिकों को भी रखा करते थे जिसे आवश्यकता पड़ने पर वह राजा को भी सैनिक सहायता दिया करते थे। जमींदारों की सेना रखना मुगलकालीन इतिहास का पतन होने का कारण भी बना। औरंगजेब के बाद जमींदार धीरे -धीरे अधिक शक्तिशाली हो गए और मुगल से स्वतंत्र हो चले थे।

 

जमींदारों को लाभ प्राप्त-

जागीरदारी प्रथा से जागीरदारों को अत्यधिक लाभ हुआ

वे पूंजी और श्रम लगाकर किसानों से भूमि पर खेती करवाया करते थे

जिससे उन्हें अत्यधिक लाभ पहुंचा और वह समाज में अपनी स्थिति अच्छी कर पाए।

 

निष्कर्ष -

इस प्रकार जमींदारों को मोटे तौर पर अपने अधिकार प्राप्त थे 

मुगलकालीन समय में यह जागीरदार के नाम से प्रचलित थे और ब्रिटिश काल में इन्हें जमींदार कहा जाने लगा

 मुगलकालीन समय से ही जागीरदारों की स्थिति में सुधार आने लगा और भी समाज में ऊंचे पद पर पहुंच चुके थे उनकी अपनी स्वतंत्र सेना ,भूमि ,व्यापार हुआ करता था। 

 

11) दिल्ली सुल्तानों की दक्कन नीति का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए?

Certically examine the Decan policy of the Delhi Sultans?

दिल्ली सुल्तानों की दक्कन नीति अलग-अलग रही है बाबर ने उत्तरी भारत पर अपनी कमान कसी, कभी दक्षिण भारत की ओर ना जा सका।

1528 में चंदेरी पर विजय प्राप्त कर बाबर ने साम्राज्य को मालवा के उत्तरी सीमा के नजदीक पहुंचा दिया था इससे आगे वे ना बढ़ सका।

बुरहान निजाम शाह के लगातार आग्रह के बावजूद भी हुमायूं दक्षिण की ओर ना जा सका वह गुजरात , बंगाल और बिहार की परिस्थिति में इस प्रकार उलझा की उसे दक्कन की ओर जाने का ख्वाब तक लाया।

अकबर, शाहजहां और औरंगजेब की दक्कन नीति के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।

अकबर की दक्कन नीति-

अकबर दक्षिण भारत में भी अपना सिक्का जमाना चाहता था उसे गुजरात से होने वाले व्यापार का भी लाभ उठाना था अकबर के इरादों को मजबूती दक्षिण भारत में हो रहे स्थानीय युद्ध ने दी। दक्कन क्षेत्र पर गुजरात के शासक का सिक्का पहले ही जमा हुआ था उसे सबसे बड़ा मान सम्मान दिया करते थे।  दक्षिण राज्यों के साथ अकबर का पहला संबंध मालवा को जीतने के बाद स्थापित हुआ। 1586 में मुर्तजा का छोटा भाई बुरहान भागकर अकबर के दरबार में आया वहाँ उससे सहायता मांगी

परंतु युद्ध के समय वह बिना मुगल सहायता के ही जीत गया जिसके कारण उसने अकबर की स्वायत्तता मानने से इनकार कर दिया। 1591 में अकबर द्वारा दक्षिण भारत ने साम्राज्य स्थापित करने की एक और कोशिश की गई जिसके तहत चार शासकों के पास राजकीय दल भेजे गए केवल राजा अली खां ने अकबर की स्वायत्तता स्वीकार की और युवराज सलीम के लिए तोहफे के तौर पर बेटी के विवाह प्रस्ताव भेजा। इस प्रकार धीरे-धीरे अकबर ने अपने अनेक प्रयासों से दक्षिण की ओर आने की पूरी कोशिश की।

 

जहाँगीर और दक्षिण नीति-

जहांगीर ने भी अकबर की तरह दक्षिण भारत में विस्तारवादी नीति अपनाई

परंतु वे कुछ ज्यादा सफल नहीं हुआ इसका एक कारण यह भी है कि वह अपने कार्य के प्रति समर्पित नहीं था

अहमदनगर और बालाघाट के हिस्से जो अकबर द्वारा जीते गए थे वह भी जहांगीर के समय अलग हो चले थे

जहांगीर के शासन में मुगल साम्राज्य के दक्कन क्षेत्र में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई

दरबार में होने वाली समस्याओं का निपटारा ही जहांगीर के लिए प्रमुख बनता गया।

 

शाहजहां और दक्कन नीति-

जहांगीर की मृत्यु के बाद शाहजहां को गद्दी पर बैठा है  उस समय दक्कन में मुगल गवर्नर लोधी को निजाम से जरूरत के वक्त सहायता लेने हेतु बालाघाट भेजा गया था उसे वापस बुलाने का आदेश दिया गया परंतु यह आदेश पूरा ना हो सका आदेश की पूर्ति ना होना

बगावत समझी गई जिसके कारण दक्षिण भारतीय राज्यों के प्रति शाहजहां ने अपनी क्रूर नीति अपनाई। 1636 में शाहजहां दक्कन आया और एक नए दौर की शुरुआत हुई

शाहजी को पराजित करते हुए मुगलों द्वारा कई किले जीते गए

इसके बाद बीजापुर के इलाके को तहस-नहस किया गया और वहां भी कब्जा कर लिया गया मोहम्मद आदिल शाह ने संधि की प्रार्थना की। इस संधि के तहत भीम नदी के उत्तर का इलाका मुगलों के अधीन रहा और दक्षिण का इलाका आदिल शाह के कबसे रहा। मुगलों ने कभी दक्षिण भारत में बीजापुर की स्थिति मजबूत ना होने दी उन्हें शक था

 कि शक्ति मजबूत होने पर यह मुगलों के खिलाफ एक गठबंधन ना बना ले और उनकी दक्षिण भारत जीतने की योजना विफल ना हो।

समय के साथ मुगल और बीजापुर के संबंध में भी खटास आनी शुरू हो गई

वही मुगल दक्षिण भारत के अन्य राज्यों में भी अपना कब्जा करना चाहते थे

जिसके लिए शाहजहां ने औरंगजेब को दक्षिण भारत में भी भेजा था।

1656 से 1657 में मुगलों की दक्कन नीति में बदलाव का कोई सकारात्मक प्रभाव देखने को नहीं मिला दक्षिण भारत के शासक, मुगलों को शक और घृणा की नजर से देखने लगे। दक्कन की समस्याओं को सुलझाने के स्थान पर शाहजहां ने उन्हें और उलझा दिया था।

 

औरंगजेब की दक्कन नीति-

औरंगजेब के समय दक्षिण भारत में मराठों की बढ़ती शक्ति भी सामने आई

औरंगजेब ने बीजापुर और गोलकुंडा को 1657 की संधि के वादे रखने का प्रयास किया जिससे वह प्राप्त इलाकों में अपना अधिपत्य कर सके

परंतु जयसिंह मराठों की सहायता लेकर दक्कन में एक आक्रमणकारी नीति अपनाना चाहता था। औरंगजेब ने बहादुर खां को दक्कन का गवर्नर नियुक्त किया उसने बीजापुर के सदस्यों को अपने पक्ष में मिलाना शुरू कर दिया था

परंतु तभी औरंगजेब ने बहादुर खां वापस बुलाकर दिलेर खां को दक्षिण का सूबेदार बना दिया। बीजापुर के प्रति शासक सिद्धि मसूद ने मुगलों के साथ समझौता किया

परंतु उसने समझौते की कोई शर्त बाद में पूरी नहीं की और शिवाजी के साथ दोस्ती करनी चाहि दिलेर खां ने उससे सारी शर्तें मनवाने का पूरा प्रयास किया परंतु असफल रहा जिसके कारण औरंगजेब ने बीजापुर पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया।

सिद्धि मसूद राजनीति खेलता रहा एक तरफ मुगलों तथा दूसरी तरफ शिवाजी के साथ था। दिलेर खां ने शिवाजी के कई ठिकानों पर कब्जा कर उन्हें बर्बाद कर दिया था वहीं दूसरी तरफ बीजापुर भी पूरी तरह कमजोर हो चुका था। बीजापुर को जीतकर वहां औरंगजेब के नाम का खुदबा पढ़ा गया और उसके नाम का सिक्का चलाया गया। मुगल और बीजापुर के बीच बने यह संबंध जल्दी समाप्त हो गए जिसका कारण संभाजी बने

मुगल संभाजी के खिलाफ बीजापुर की सहायता चाहते थे जबकि बीजापुर अंदर ही अंदर मराठों को सहायता पहुंचाना चाहता था।

औरंगजेब ने अब दक्कन में आकर स्वयं कमान संभाली और धीरे-धीरे बीजापुर ,गोलकुंडा आदि राज्यों पर आक्रमण किया कई बार उसे सफलता मिली तथा कई बार उसे असफलता का मुंह देखना पड़ा एक लंबे समय तक दक्षिण में रहने के कारण उत्तर भारत में मुगलों की स्थिति कमजोर हो चुकी थी।

दक्कन की नीति मुगलकालीन इतिहास में राजाओं के अनुसार भिन्न - भिन्न रास्तों पर चली थी कई राजा दक्कन की ओर ध्यान ना देख सके तो कई  शासकों ने वहां जाकर अपने अपनी जीत का डंका भी बजाया। परंतु दक्षिण भारत को जीतने की कोशिश में मुगल साम्राज्य पतन की ओर बढ़ता चला गया।

12) मुगल काल में समुंद्री तटीय व्यापार की प्रकृति का विश्लेषण कीजिए?

Analys the nature of coastal trade during the Mughal period?

16वी  शताब्दी के प्रारंभ से भारत का व्यापार पश्चिमी भागो के साथ शुरू हो चुका था

17 वी  शताब्दी के दौरान डच, फ्रांसीसी और अंग्रेज व्यापारी भारत आकर व्यापार किया करते थे लंबी दूरी के व्यापार के लिए समुद्री मार्ग सर्वोत्तम माना जाता था

समुद्री व्यापार में कई अनिश्चितता हुआ करती थी इसी कारण पोत बंधक ऋण की शुरुआत हुई यह एक प्रकार की सट्टेबाजी थी जो काफी प्रचलित हुआ करती थी इसमें ब्याज दर 14%से 60% तक थी यह राशि किसी खास स्थान को जा रहे जहाज में निवेशक लोगों द्वारा की जाती थी

 ब्याज की दर यात्रा विशेष के खतरे पर निर्भर करती थी यदि यात्रा सफल हुई तो

 निवेश करने वाले लोगों को मुनाफा हुआ करता था

 यात्रा सफल ना होने पर कई बार यह निवेश पूरी तरह घाटे में भी चले जाता था।

मुगल काल में भी समुद्री तट या व्यापार के कई साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

 

 तटीय व्यापार- अंतर प्रांतीय व्यापार में भी समुद्री रास्ते का प्रयोग किया जाता था

पश्चिमी तट पर तटीय व्यापार ज्यादा गतिशील था हालांकि पूर्वी तट पर भी काफी व्यापारिक गतिविधियां हुआ करती थी

पश्चिमी तट पर समुद्री डाकू का खतरा गंभीर रूप से छाया हुआ था

इसीलिए पश्चिमी तट पर जहाज का एक कारवां निकला करता था।

यह जहाज  दाल ,चीनी ,कपड़े तेल, गेहूं अन्य विभिन्न वस्तुएं ले जाया करते थे।

 

कोच्चि और गोवा के बीच समुद्री व्यापार-

कोच्चि और गोवा के बीच जहाज विशाल नहीं हुआ करते थे।

इसलिए इन जहाजों में अधिक समान लाया नहीं जाता था

यह जहाज छोटे और कम मात्रा में सामान लाने के लिए उपयुक्त हुआ करते थे।

 

कोरोमंडल तट से व्यापार-

मलक्का और पूर्व से आने वाले जहाज श्रीलंका के पास मिलते थे और फिर बंगाल और कोरोमंडल तट से आई नावें  इन्हीं सुरक्षित रूप से कोच्चि पहुंचा देती थी।

बंगाल के तटीय शहरों में जिंक, तंबाकू ,मसाले ,तांबा और चिट जैसे कपड़ों से लदी नावें कोरोमंडल तट से आती थी। वही कोरोमंडल तट पर पारा काली मिर्च तब आदि गुजरात से और मसाले मालाबार से पहुंचाते थे। विजयनगर और गोलकुंडा से लाया गया अनाज, लोहा ,इस्पात, कपड़ा और अन्य धातुओं कोरोमंडल के रास्ते बंगाल पहुंचाई जाती थी बंगाल के तट से चावल, कपड़े और अन्य वस्तुएं पश्चिमी तट पर पहुंचाई जाती थी।

 

गुजरात और बंगाल से व्यापार-

गुजरात और बंगाल की रेशमी वस्त्रों का भी निर्यात होता था तैयार कपड़ों के अलावा सूती और रेशमी सूट भी बड़ी मात्रा में मंगवाया जाता था। 1630 के दशक में गुजरात में आए अकाल के कारण समुद्री व्यापार पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा

1650 के बाद पूर्वी तट से भी व्यापार शुरू हुआ और मद्रास के से प्रतिवर्ष ₹100000 से ऊपर थान की आपूर्ति करने लगा

ईस्ट इंडिया कंपनी और डच कंपनियों की मांग दिन पर दिन बढ़ने लगी।

 

पूर्वी समुद्री रास्ते-

पूर्वी समुद्री रास्तों के जरिए भारतीय उपमहाद्वीप काफी लंबे समय से चीन और इंडोनेशिया दीप समूह के साथ व्यापार करते आ रहा था

हुगली मसूलीपटनम से वस्तुएं सीधा मलक्का बटाविया भेजी जाती थी।

 

प्रमुख समुद्री मार्ग-

भारतीय उपमहाद्वीप के लिए अरब सागर और बंगाल की खाड़ी प्रमुख समुद्री मार्ग के रूप में सामने आए।

दूसरा समुद्री मार्ग सूरत से होकर फारस की खाड़ी और लाल समुद्र तक जाया करता था।

दूसरा प्रमुख मार्ग कोच्ची और कालीकट से होकर एडन जाया करता था

इस प्रकार मुगल काल में भी समुद्री तटीय व्यापार बड़ी प्रगति पर था

यह व्यापार पूरे विश्व से संबंधित हुआ करता था

चीन से लेकर यूरोप में भारतीय उपमहाद्वीप से मसाले ,गेहूं ,तेल ,कपड़े आदि निर्यात किया जाता था।

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